केवलज्ञान का क्या अर्थ है?
जैन धर्म में, केवलज्ञान का अर्थ है पूर्ण ज्ञान या सर्वज्ञता। यह वह अवस्था है जब आत्मा सभी कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाती है और सभी वस्तुओं और घटनाओं को उनके अतीत, वर्तमान और भविष्य में जान सकती है।
नन्दि सूत्र में केवलज्ञान को इस प्रकार परिभाषित किया गया है: "केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्य परिमाण, औदयिक आदि भाव अर्थात् वर्ण, गन्ध, रस आदि को जानने का कारण है। वह अनन्त है, शाश्वत है और अप्रतिपाती है। ऐसा केवलज्ञान एक ही प्रकार का है।"
केवलज्ञान को प्राप्त करने के लिए, एक व्यक्ति को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पांच व्रतों का पालन करना चाहिए। उन्हें सभी कर्मों को भी नष्ट करना होगा जो आत्मा को बांधते हैं। जब यह हो जाता है, तो आत्मा केवलज्ञान को प्राप्त करती है और सिद्ध बन जाती है।
केवलज्ञान जैन धर्म का सर्वोच्च लक्ष्य है। यह वह अवस्था है जिसमें आत्मा सभी दुखों से मुक्त हो जाती है और शाश्वत सुख का अनुभव करती है।
Reference Links
the same coin. When the medium of grasping some subject is knowledge or Jnana the separate 卐 existence of perception or darshan becomes redundant. Also, only 45 jnana is accepted as authentic and not darshan As the Kewali has direct and independent experience, his darshan is jnana only. Acharya Vriddhavadi was among the supporters of this school. This belief is famous as Abhinna Upayogavad (the school of Unified Indulgence). Upadhyaya Yashovijay ji has combined these three different beliefs on the basis of Nayas. He says that if we look it from Riju Sutra naya 卐 the Ekantar Upayogavad is correct. From the Vyavahar naya Yugapad 卐 Upayogavad is correct and from Sangraha naya Abhed Upayogavad is correct. In fact, there are no grounds for a difference of opinion on this 卐 subject. As Kewal-jnana and Kewal darshan are beyond comprehension and logic all these views are nothing but variations in efforts of understanding these concepts. This subject has been discussed in details in Nandi Sutra Churni (a type of commentary) and its Tika (another type of commentary) by Malayagiri. ४३ : अह सव्वदव्व-परिणाम-भाव-विण्णत्तिकारणमणतं । एगविहं केवलं नाणं ॥ सासयमपडिवाई, अर्थ-केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्य परिमाण, औदयिक आदि भाव अर्थात् वर्ण, गन्ध, रस आदि को जानने का कारण है। वह अनन्त है, शाश्वत है और अप्रतिपाती है। ऐसा केवलज्ञान एक ही प्रकार का है। उपसंहार CONCLUSION 43. Kewal-jnana is the means of knowing all existing substances and their manifestations and transformations including Audayik and other modes (form, smell, taste etc.). It is endless, eternal and indestructible. Such Kewal-jnana is of one type only. श्री नन्दी सूत्र Shri Nandisutra 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 555 4 F F IN IF IF IN IS IT IF IN IF IF IF 5 卐 卐 45 5 5 ( १६० ) 055555555555555555555555555555555550 1555 -5 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 安第斯踪踪踪踪踪踪踪踪踪踪踪踪踪踪等等 % % % परोक्ष ज्ञान INDIRECT KNOWLEDGE % % %%% %% 生听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听F % 听听听听听 वाग्योग और श्रूत का वर्णन VAGYOGA AND SHRUT (SPEECH AND VERBALISATION) ४४ : केवलनाणेणऽत्थे, नाउं जे तत्थ पण्णवणजोगे। ते भासइ तित्थयरो, वइजोगसुअं हवइ सेसं। से त्तं केवलनाणं से तं नोइन्दियपच्चक्खं। अर्थ-केवलज्ञान द्वारा सब पदार्थों को देख-जानकर उनमें से जो कुछ वर्णन करने के योग्य होता है अर्थात् वाणी द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है उसे तीर्थंकर भगवान अपने प्रवचनों द्वारा प्रतिपादित करते हैं। यही वचनयोग अर्थात् द्रव्य श्रुत होता है, शेष ॐ श्रुत अप्रधान होता है। ___इस प्रकार केवलज्ञान का विषय सम्पूर्ण हुआ और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष का प्रकरण भी समाप्त हुआ। 44. After seeing and knowing all substances, Tirthankar 55 Bhagavan propagates through his discourse all what is worth describing or which can be expressed through speech. This is 4 called vachan-yoga or dravya shrut (the combination of thought $ and speech or the material manifestation of knowledge). All other shrut is insignificant. This concludes the description of Kewal-jnana and also Noindriya pratyaksh. म विवेचन-तीर्थंकर भगवान अपने केवलज्ञान से अनन्त पदार्थों को अनन्त भावों को + जानते-देखते हैं परन्तु वह सभी शाब्दिक अभिव्यक्ति के परे हैं। अतः जो जितना शब्दों में . 卐 अभिव्यक्त हो सकता वे उतना ही कहते हैं। जैनदर्शन के अनुसार वस्तुतः केवलज्ञानी के प्रवचन +का कारण उनका केवलज्ञान नहीं है अपितु वचनयोग है जो भाषा-पर्याप्ति नामक कर्म के उदय। 场男与步与当场断牙牙牙牙牙%%% 听听听听听听听听听听听四 परोक्ष ज्ञान ( १६१ ) Indirect Knowledge 场与步步步岁岁岁男穿男爭写完究员%%%%%%%%紧紧岁岁岁男究所 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Winnnnnnnnnnnn 5555555555550 * से होता है। यह वाग्योग द्रव्यश्रुत कहलाता है और जो प्राणी सुनते हैं उनके लिए वही भावश्रुत * बन जाता है। यही गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध श्रुतज्ञान है-यही आगम है। Elaboration-Tirthankar Bhagavan with the help of his Kewal. 4 jnana sees and knows infinite things and infinite modes but not all 41 i come within the scope of expression. Therefore he tells only what is expressible in words. According to the Jain philosophy the inspiring cause for a discourse by a Kewal-jnanı is not his omniscience but vachan yoga which manifests due to fruition of the karma known as 4 Bhasha Paryapti. This vagyoga is also called dravya-shrut and it 卐 becomes bhava-shrut (the thought manifestation of knowledge) for those who listen. This alone is the Shrut-jnana organised or verbalised by the Ganadhars-this is Agam or the canons. परोक्षज्ञान का निरूपण PAROKSH-INANA ४५ : से किं तं परोक्खनाणं? परोक्खनाणं दुविहं पन्नत्तं, तं जहा-आभिणिबोहिअनाणपरोक्खं, सुअनाणपरोक्खं च। जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुअनाणं तत्थ आभिणिबोहियनाणं। दोऽवि एयाइं अण्णमण्णमणुगयाइं तहवि पुण इत्थ आयरिआ नाणत्तं पण्णवयंतिअभिनिबुज्झइ त्ति आभिणिबोहियनाणं, सुणेइ ति सुअं, मइपुव्वं जेण सुअं, न मई सुअपुव्विआ। अर्थ-प्रश्न-यह परोक्षज्ञान क्या है ? के उत्तर--परोक्षज्ञान दो प्रकार का बताया है--आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान। है जहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान है वहाँ पर श्रुतज्ञान भी होता है और जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान। ये दोनों ही अन्योन्यानुगत हैं अर्थात्
मन का पर्याय कहते हैं। समनस्क अथवा संज्ञी जीव के चिन्तन के इन परिणामों को जिस ज्ञान से ग्रहण किया जा सके वह मनःपर्यवज्ञान क कहलाता है। (५) केवलज्ञान-केवल शब्द के विभिन्न अर्थों से इस ज्ञान का समग्र अर्थ समझा जा सकता 卐 है। इन अर्थों के आधार पर संक्षेप में व्याख्या इस प्रकार हैॐ केवल अर्थात् एक मात्र-जिसके उत्पन्न होने से उपरोक्त चारों ज्ञान इस एक मात्र ज्ञान में विलीन हो जायें उसे केवलज्ञान कहते हैं। 4 केवल का अर्थ अकेला, पर-सहायता से निरपेक्ष-जो ज्ञान विना किसी अन्य सहायता या +निमित्त के रूपी-अरूपी, मूर्त-अमूर्त सभी वस्तुओं तथा विषयों को प्रत्यक्ष कर देता है, जिसे मन, - इन्द्रिय, देह व किसी प्रकार के यंत्र आदि माध्यम की आवश्यकता नहीं होती उसे केवलज्ञान फ कहते हैं। __केवल का अर्थ है विशुद्ध। चारों क्षायोपशमिक ज्ञान विशुद्ध होते हैं किन्तु जो विशुद्धतम है 卐 उसे ही केवलज्ञान कहते हैं। अन्य चारों ज्ञान कषाय के अंश सहित होते हैं किन्तु केवलज्ञान उनसे रहित होता है। है केवल का अर्थ है परिपूर्ण। क्षायोपशमिक ज्ञान किसी एक पदार्थ के सभी पर्यायों को नहीं है जान सकते। जो समस्त द्रव्यों के समस्त पर्यायों को जान सके ऐसा परिपूर्ण ज्ञान केवलज्ञान 卐 कहलाता है। श्री नन्दीसूत्र ( ७० ) Shri Nandisutra $555555岁岁岁万万岁万万岁岁岁步步步步步步步步步步步为与劳方中 45$55F5%听听FF乐乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 5555555 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASAL 49 999 545454545454 LE LES LLELE LE LE LLELE LES ES REUS न केवल का अर्थ है अनन्त-जो अन्य सभी प्रकार के ज्ञानों से श्रेष्ठतम व सीमारहित है, ॐ अनन्त पदार्थों को जानने की शक्ति वाला है तथा उत्पन्न होने पर कभी नहीं जाता, उसे ॥ J ust the te केवल का अर्थ है निरावरण-जिस ज्ञान पर कैसा भी कोई आवरण नहीं हो, जो नित्य और शाश्वत हो वह ज्ञानावरणीय कर्मों के सम्पूर्ण क्षय से उत्पन्न केवलज्ञान है। __उपरोक्त पाँच ज्ञान में से प्रथम दो परोक्ष होते हैं और अन्तिम तीन प्रत्यक्ष। Elaboration-Although the author has already written the si panegyrics of Tirthankars, Ganadhars and era-leaders in the si beginning, this verse is also considered as a panegyric because it is the first verse of the basic text. In this verse only the names of different types of knowledge have been given. The details have been 15 4. discussed later in question-answer style. Jnana or knowledge means to know matter and fundamentals in their true form. The commentator (Vrıttıkar) of this scripture has interpreted the word Jnana only as the mental means and the 4 process. The data about the form of things is the mental means, as is 4 4 said to know is knowledge. And the activity through which the data 5 about the form of a thing is acquired is known as the process as is said the process of knowing the form of a thing is knowledge The classical definition is—To know the true form of things as a 4 consequence of kshaya or kshayopsham (extinction or extinction-cum\ suppression) of Jnanavaraniya-karmas (knowledge veiling karma) is 45 called knowledge. Of the five types of knowledge mentioned here the f first four are acquired by extinction-cum-suppression of karma and the fifth by extinction of karma. The definitions of the five types of knowledge in brief are as follows4 1. Abhinibodhik-jnana or Mati-jnana (sensory knowledge)-To 9 know the apparent form of things coming before the soul by means of 5 five sense organs and mind is called Abhinibodhik-jnana. It is popularly known as Mati-jnana. 2. Shrut-jnana (scriptural knowledge)--To know by hearing ! #sound, word, or speech is called Shrut-jnana. Although this type of knowledge is also received with the help of sense organs and the i 4 mind, because of the larger involvement of the processes of thinking ज्ञान मीमांसा ( 19 ) The Discussion about Knowledge 4555 55555555555555555555555555554454545555555555564546 作听听听听听听听听听听听听听听听听听F听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 9999995555555555555 564956 and contemplating it is mainly considered an activity of the mind. There are said to be two classes of Shrut-jnana-1. Arth shrut (Word 55 4 of the Omniscient)--what is propagated by the omniscient Arihant 4 after knowing through his direct perception is called Arth Shrut. 45 2. Sutra shrut-based on this Word of the Omniscient, compiled as aphorisms, what is presented by the Ganadhars is called Sutra shrut. 56 As is said—“The Arihant utters the Word (arth) and for the benefit of 45 the religious order the Ganadhars collect and compile it in the form 4 of aphorisms (sutra). 4 3. Avadhi-jnana (extrasensory perception of the physical 5 4 dimension)—the knowledge of the tangible and material things 4 5 acquired by soul without the help of sense organs and mind is known as Avadhi-jnana. It has the capacity to see and know only material things; the formless things are beyond its capacity. In other words, it 4 cannot see or know soul. This type of knowledge has the capacity to 4 5 directly perceive material things on the basis of four parameters (avadhi) of matter, space (area), time and view-point. 4 4.
इन्द्रियों और मन के द्वारा जो नियत वस्तु का बोध होता है, उसे मति कहते हैं । अर्थात जिस योग्य देश में विद्यमान विषय को इन्द्रियाँ जान सकें, उस स्थान में रहे हुए विषय का पांच इन्द्रियों और मन रूप साधन के द्वारा जो बोध होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं ।" मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध, ये सभी मतिज्ञान के नामान्तर हैं। (ख) अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्त्यक्ष आत्मा । तमेव "प्रतिनियतं - सर्वार्थसिद्धि १/१२ प्रत्यक्षम् । १ मननं मतिः यद्वा मन्यते इंद्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः, योग्यदेशाऽव स्थितवस्तुविषय इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेषः, मतिश्चासौ ज्ञानं च मतिज्ञानम् । - पंचसंग्रह मलयगिरिटीका, पृ. ६ २ मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । - तत्त्वार्थसूत्र १/१३ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह श्र तज्ञान-'श्रवणं श्रुतं'-श्रवण करना-सुनना, यह श्रुत है। वाच्यवाचकभाव के सम्बन्धपूर्वक शब्दसम्बन्धी अर्थ को जानने में हेतुभूत ज्ञानविशेष श्रुतज्ञान कहलाता है।' जलधारण आदि अर्थक्रिया करने में समर्थ अमुक प्रकार की आकृति वाली वस्तु घट शब्द द्वारा वाच्य है-इत्यादि रूप से जिसमें समानपरिणाम प्रधान रूप से है, इस प्रकार शब्द और अर्थ की विचारणा का अनुसरण करके होने वाला इन्द्रिय और मनोनिमित्तक बोध श्रु तज्ञान है ।२ अथवा मतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिसमें हो, उसे श्र तज्ञान कहते हैं। जैसे कि घट शब्द को सुनकर और आँख से देखने के बाद उसके बनाने वाले, रंग, रूप आदि सम्बन्धी भिन्न-भिन्न विषयों का विचार श्र तज्ञान द्वारा किया जाता है। ___अवधिज्ञान-'अव' शब्द अधः (नीचे) अर्थ का वाचक है। अतः 'अधोधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यते अनेन इत्यवधिः-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना जिस ज्ञान के द्वारा आत्मा नीचे-नीचे विस्तार वाली वस्तु जान सके, वह अवधिज्ञान है। अथवा अवधि शब्द का अर्थ मर्यादा भी होता है। अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष करने की योग्यता वाला है, अरूपी को ग्रहण नहीं करता है, यही १ श्रवण श्रुतं वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्द संसृष्टार्थग्रहणहेतुरूपलब्धिविशेषः । -पंचसंग्रह मलयगिरिटीका, पृ. ६ . २ ......"शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तो ज्ञान विशेषः, श्रुतं च तद्ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् । ~पंचसंग्रह मलयगिरिटीका, पृ. ६ ३ अत्थादो अत्यंतरमूवलंभंतं भणंति सुदणाणं । आभिणिबोहियपुव्वं .......... -~-गोम्मटसार जीवकांड, गाथा ३१५ ४. यह कथन वैमानिक देवों की अपेक्षा समझना चाहिए। क्योंकि वे नीचे-नीचे अधिक-अधिक जानते हैं, किन्तु ऊपर तो अपने विमान की ध्वजा तक ही जानते हैं। -सम्पादक Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ५ . उसकी मर्यादा है। अतः रूपो द्रव्य को हो जाननेरूप मर्यादा वाला आत्मा को जो प्रत्यक्षज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं ।' अथवा बाह्य अर्थ को साक्षात् करने वाले आत्मा के व्यापार को अवधिज्ञान कहते हैं। ये तीनों ज्ञान-मतिज्ञान, श्र तज्ञान और अवधिज्ञान जब मिथ्यात्वमोह के उदय से कलुषित होते हैं, तब वस्तुस्वरूप को यथार्थरूप से न जानने वाले होने के कारण अनुक्रम से मति-अज्ञान, श्र त-अज्ञान और विभंगज्ञान कहलाते हैं । ३ विभंगज्ञान में 'वि' शब्द विपरीत अर्थ का वाचक है। अतः जिसके द्वारा रूपी द्रव्य का विपरीत भंग-बोध होता है, वह विभंगज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान अवधिज्ञान से उलटा है। मनःपर्यवज्ञान--'मन', 'परि' और 'अव' इन तीन का संयोगज रूप मनःपर्यव शब्द है। इनमें से 'परि' शब्द सर्वथा अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, 'अवनं अवः'-जानना, 'मनसि मनसो वा पर्यवः मनःपर्यवः'-मन के भावों का सर्वथा रूप से जो ज्ञान होता है, उसे मनःपर्यवज्ञान कहते हैं, अर्थात् जिसके द्वारा ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञो पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों, विचारों को जाना जा सके, उसे मनःपर्यव या मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं । अथवा संपूर्णतया मन को जो जाने वह मनःपर्याय १ (क) यद्वा अवधिर्मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा, तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधि:, अवधिश्चासौ ज्ञानं च अवधिज्ञानम् । -पंचसंग्रह मलयगिरि टीका, पृ. ६ (ख) रूपिष्ववधे । -तत्त्वार्थसूत्र १/२८ २ यद्वा अवधानम् आत्मनोऽर्थसाक्षात्करणव्यापारोऽवधिः अवधिश्चासौ ज्ञानं चावधिज्ञानम् । -नन्दीसूत्र टीका ३ मतिश्रु तावधयो विपर्ययश्च । -तत्त्वार्थसूत्र १/३२ ४ विभंगमति विपरीतो भङ्गः परिच्छित्तिप्रकारो यस्य तद् विभङ्गम् । -पंचसंग्रह मलयगिरि टीका, पृ. ६ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह अथवा मन की पर्यायों - धर्म - बाह्यवस्तु के चिन्तन करने के प्रकार का विचार करने पर मनोवर्गणायें विशिष्ट आकार रूप में परिणत होती हैं, उनका जो ज्ञान है, वह मनःपर्यायज्ञान कहलाता है । ३८ केवलज्ञान -- केवल अर्थात् एक । अतः एक जो ज्ञान वह केवलज्ञान है । एक होने का कारण यह है कि यह ज्ञान मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञाननिरपेक्ष है । जैसा कि शास्त्र में कहा है- 'नट्ठमि छाउमत्थिए नाणे" मत्यादि छाद्मस्थिक ज्ञानों के नष्ट होने पर केवलज्ञान होता हैं । अथवा केवल अर्थात् शुद्ध । अतः पूर्ण ज्ञान को आवृत करने वाले कममलरूप कलंक का सर्वथा नाश होने से शुद्ध जो ज्ञान है, वह केवल - ज्ञान है । अथवा केवल अर्थात् सम्पूर्ण । अतः केवलज्ञानावरण का सर्वथा क्षय होने से सम्पूर्णरूप में जो उत्पन्न होता है, वह केवलज्ञान है | अथवा केवल अर्थात् असाधारण । अतः उसके सदृश दूसरा ज्ञान न होने से जो असाधारण ज्ञान है, वह केवलज्ञान है । अथवा केवल अर्थात् अनन्त । अनन्त ज्ञेय वस्तुओं को जानने वाला होने से अनन्त जो ज्ञान है, वह केवलज्ञान है । १ आवश्यकनियुक्ति, गाथा ५३६ (क) शुद्ध